कुछ दशक पहले -विक्रम बिष्ट

चार दशक पहले मई में प्रधानमंत्री इन्दिरा गांधी बद्रीनाथ आई थीं। उत्तराखण्ड क्रांति दल का प्रतिनिधि मण्डल उनसे मिला था। देश के किसी प्रधानमंत्री ने पहली बार उत्तराखण्ड राज्य निर्माण के मुद्दे पर वार्ता को इतना महत्व दिया था।
उस दौर में खालिस्तान, गोरखालैंड आंदोलन चरमोत्कर्ष पर थे। पूर्वोत्तर की पहाड़ियों पर वर्षों से अलगाववाद की आग सुलग रही थीं। पौन घण्टे की बातचीत में इन्दिरा जी ने उसी संकटपूर्ण माहौल का हवाला देकर उत्तराखण्ड को राज्य का दर्जा देने में असमर्थता व्यक्त की थी। उस सौहार्दपूर्ण वार्ता के बाद उक्रांद की गतिविधियां भी लगभग ठप्प हो गई थीं।
तब हम उत्तर प्रदेश में थे। मांग उत्तराखण्ड राज्य की थी। आज उत्तराखण्ड राज्य है। मांग इसकी एक मासूम बेटी अंकिता की जघन्य हत्या के सभी दोषियों को कठोरतम सजा दिलाने की है। जिस तरह बड़ी पहुंच वाले नकाबपोश पहाड़ को बरबाद करने पर तुले हैं, नकाबों का रंग चाहे कैसा भी हो,
उत्तराखण्ड अपने प्रधानमंत्री जी से बेटियों की सुरक्षा चिंताओं पर आश्वासन की कामना करता है । बच्चों के मासूम सपनों की उड़ान को सुरक्षित खुला आसमां मिले, हैवानियत के ग्रहण को बाधक बनने की राई- रत्ती गुंजाइश न हो ।
प्रदेश सरकार एसआईटी के माध्यम से गिरफ्तार आरोपियों को सजा दिलाने में कामयाब होगी, पूरी उम्मीद है। किस हद तक, यह कानून के जानकारों से ज्यादा अपराधियों के बचाव की तिकड़मों की गहरी समझ रखने वाले ही बता सकते हैं। इस घटना के जिम्मेदार सभी तरह के लोगों पर कानूनी शिकंजा अपराधों की रोकथाम के प्रयासों में कारगर साबित होगा।
यूपी सरकार ने उक्रांद के प्रतिनिधिमण्डल को उस राष्ट्रव्यापी प्रतिकूल माहौल में प्रधानमंत्री से मिलने दिया। उत्तराखण्ड में क्या दिक्कत है। कम से कम सरकार की ओर से उक्रांद की महिला नेताओं के एक प्रतिनिधिमंडल को प्रधानमंत्री जी से मिलवाया जा सकता था। यह सकारात्मक राजनीतिक संदेश होता।
तंत्र के भीतर के तांत्रिक ही सरकार और जनता के बीच खाईयां खोदने, बढ़ाने का काम करते हैं। इसलिए पूरी सदाशयता के बावजूद कई काम अपेक्षित परिणाम नहीं दे पाते हैं। यह सिर्फ सरकार और कुछ नेताओं के लिए नहीं पूरे उत्तराखण्ड के लिए बुनियादी चुनौतियों में पहली है।

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