
टिहरी
बेरोजगारी, बीमारी, भूख और भय के मुद्दों से भटकाने की जनविरोधी राजनीति आज का सच है। पहले भी यह होता रहा आया है लेकिन तब समझदारी और लोकतंत्र के प्रति कमोवेश सम्मान की भावना थी। सत्ता की ओर से एक तरफा संवाद थोपने की वजाए प्रतिपक्षी आवाज को सुनने का रिवाज था। आजादी की साझी लड़ाई की गौरवशाली विरासत जब तक राजनीति और सत्ता को देश की चहुंमुखी उन्नति के मार्ग पर प्रेरित करती रही, तब असहमति को देशविरोधी जैसी गालियां देने के कुसंस्कारों के लिए अवकाश हो भी नहीं सकता था।
बुलडोजर लोकतंत्र की भाषा नहीं है, वह अपराध और न्याय में फर्क नहीं करता है। वनंत्रा हो या संविधानिक, बौद्धिक संस्थाएं उसके लिए सिर्फ और सिर्फ प्रकारांतर से अपनी ध्वंसात्मक ताकत का अहसास करवाना है। जाहिर है दो- तीन चुनाव के परिणामों से इस स्थिति से ज्यादा उम्मीदें नहीं हैं। शायद आगे की पटकथा में कुछ और कड़ुवे सबक हों !