सादगी बनाम वीआईपीगिरी- विक्रम बिष्ट

टिहरी

सादगी बनाम वीआईपीगिरी, एक जोड़े, दूसरी तोड़े
राज और समाज की मुख्यधारा से उपेक्षित पृथक पर्वतीय राज्य की मांग को लोकप्रिय जनांदोलन में बदलने वाले उत्तराखण्ड क्रांति दल के उत्साही कार्यकर्ता इन दिनों काफी सक्रिय हैं, सोशल मीडिया पर और कुछ- कुछ धरातल पर भी। सबसे महत्वपूर्ण और सराहनीय बात यह है कि ठोस वास्तविक मुद्दों पर । उत्तराखंड का आज जो है सामने है, भविष्य कैसा होगा ?
दो ही विकल्प हैं। एक, इन और ऐसे तमाम सवालों को सुलझाने के ईमानदार प्रयास। अथवा भावनात्मक जुमलों से रचित मायाजाल को निरंतर और मजबूती से
फैलाते हुए पहाड़ के हाड़, मांस की लूट- खसोट की छूट।
विधानसभा चुनाव में उक्रांद की जो दुर्दशा हुई इसके बावजूद इन कार्यकर्ताओं के जज्बे को सलाम। यही उक्रांद कार्यकर्ता होने का अर्थ है। विभिन्न दलों के कई विचारशील नेता भी उक्रांद की इस दशा को राज्य के लिए शुभ संकेत नहीं मानते हैं। क्षेत्र हित में एक सशक्त राजनीतिक दबाव समूह के रूप में ही सही उक्रांद की सक्रिय उपस्थिति का फिलहाल कोई विकल्प नहीं है। आगे का रास्ता तभी खुलेगा।
दल के नेतृत्व को निर्मम आत्मविश्लेषण करने का साहस जुटाना जरूरी है। राजनीति हो या शासन ,,,, कबीर को हर समय याद रखना कल्याणकारी है, ‘ निंदक नियरे रखिए’। वीआईपी संस्कृति और लोकहित की राजनीति परस्पर विरोधी है।
सन् 1995 अप्रैल का दूसरा सप्ताह । टिहरी बांध विरोधी आंदोलन को पुनः तेज करने के लिए सुन्दर लाल बहुगुणा जी की कुटीर में बैठक थी। मेधा पाटकर भी टिहरी आई थीं। कुछ देर बाद इन्द्रमणि बडोनी भी पहुंचे। पुराने खादी के कुर्ते-पैजामे में ।
बताने की जरूरत नहीं कि उस दौर में बडोनी जी उत्तराखंड के सबसे लोकप्रिय और आदरणीय नेता थे। फिर भी अकेले, पैदल। सतपाल महाराज कुछ समय पूर्व उत्तराखंड संयुक्त संघर्ष समिति के संरक्षक बने थे। 15 अप्रैल को आयोजित हरिद्वार प्रेमनगर आश्रम मे सतपाल महाराज के हिमालय गर्जना कार्यक्रम में शामिल होने के लिए टिहरी से बडोनी जी और लोकेंद्र जोशी के साथ । पूर्व विधायक प्रताप सिंह पुष्पाण को बडोनी जी ने उसी कार्यक्रम में संघर्ष समिति का संरक्षक घोषित किया था। पुष्पाण जी 1977 में जनता पार्टी के विधायक थे। बडोनी जी निर्दलीय। सरंक्षक आकांक्षियों की कतार कुछ ज्यादा ही लम्बी हो रही थी। उन्होंने अपने भाषण के बीच में पूछा, इन्हें भी,,,। दूसरी बहुत महत्वपूर्ण बात,, टिहरी कूच,,। मैंने असहमति में सिर हिला दिया। कारण कुछ अलग-2 थे। आशंकाएं एक-सी। चिपको आंदोलन के हश्र के बारे में कुछ पढ़ा- सुना था। बहरहाल उस सांय दोनों घोषणाएं नहीं हुईं।
उससे आठ-नौ साल पहले की बात है। उक्रांद केन्द्रीय कार्यकारणी की बैठक ऋषिकेश में थी। लोक निर्माण विभाग के विश्राम गृह के बरामदे में घुटनों तक खादी का कच्छा और आधी बाहों की बनियान पहने एक वृद्ध व्यक्ति कुर्ता, पैजामा धो रहे थे। त्रिवेन्द्र पंवार जी ने परिचय कराया। वह सज्जन थे उक्रांद के पूर्व अध्यक्ष- और पहले विधायक रहे जसवंत सिंह बिष्ट। डा. राम मनोहर लोहिया के शिष्य। कभी भी वीआईपी संस्कृति छू नहीं पाई।
टिहरी से अंजनीसैण जाते हुए जाखणीधार से आगे बडोनी जी ने जीप रुकवा दी । कहा भाषण दो। आसपास कोई नहीं। असमंजस भांप कर उन्होंने सामने के पहाड़ी ढ़लान की ओर ध्यान खींचते हुए कहा वे घसियारिनें तुम्हारी बात सुनेंगी। घर लौटकर उत्तराखंड राज्य का रैबार गांव तक पहुंचाएंगी। और,, उक्रांद ने उत्तराखंड आकांक्षाओं को बुलंदियों तक पहुंचा दिया।
एक दिन ऐसा भी आ गया कि प्रोटोकॉल के अनुसार स्वागत में भीड़ नहीं तो नेता क्यों अपना कीमती वक्त बर्बाद करें। भीड़ जरूरी है किराये की ही सही। वह भीड़ तो उधर ही जाएगी जहां गुड़ होगा!

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