
टिहरी
जां बात और हाथ चलनी/ उंकै कौनी ग्राम सभा। जां बात और लात चलनी/ उंकै कौनी विधानसभा। जां एक बुलां सब सुणकि/ उंकै कौनी शोकसभा। जां बात और लात चलनी/ उंकै कौनी लोकसभा।
शेर सिंह बिष्ट ‘शेरदा’ की कुमांउनी कविता।
भेदभाव से परे ,सत्य- निष्ठा, न्यायपूर्वक अपना कर्त्तव्य पालन करूंगा/करूंगी। क्या आज संविधानिक पदाधिकारियों के लिए इस शपथ के मायने वास्तव में यही है , जो सभ्य समाज और स्वस्थ लोकतंत्र की आत्मा है? लोकतंत्र के सभी खंभों को कमजोर कर देश को मजबूत कैसे किया जा सकता है! भयभीत सत्ता ने सन् 1975 में एक अधूरी कोशिश की थी, लेकिन जल्दी ही अहसास हो भी गया था। लोकतंत्र की गौरवशाली परम्परा के प्रति आस्था और गहरी हुई।
समझना चाहिए। गढ़वाली कहावत है, सदै नि रैण श्यामा बौ तेरू कोदू उधार !