
उत्तराखंड
कथा अनंत, आंदोलनकारी चिन्हीकरण कथा अन,,,
जनांदोलनों के इतिहास से खिलवाड़ शासक वर्ग के लिए आवश्यक है ताकि बदलाव के बाहरी रंग- रोगन के साथ यथास्थिति कायम रहे। उत्तराखण्ड राज्य आंदोलन भी अपवाद कैसे हो सकता है ?
राज्य आंदोलनकारी चिन्हीकरण का निर्णय कांग्रेस की नारायण दत्त तिवाड़ी सरकार का है।आंदोलन के दौर की अपनी भूमिका के लिए प्रायश्चित करने की पावन भावना होती तो नित्यानंद स्वामी सरकार के उत्तराखण्ड विरोधी फैसलों को बदलते!
अब एक नजर चिन्हीकरण से संबंधित चंद शासनादेशों पर। मंशा समझने में आसानी होगी। लगभग पांच साल बाद भाजपा नेतृत्व की सरकार को आंदोलन का आधार वर्ष निर्धारित करने की सूझी। कायदे से शुरुआत यहीं से होनी चाहिये थी ।
28 फरवरी 2009 के शासनादेश में कहा गया है कि शासन द्वारा सम्यक विचारोपरांत यह निर्णय लिया गया है कि उत्तराखण्ड राज्य आंंदोलनकारियों के चिन्हीकरण हेतु आधार वर्ष 1979 माना जाएगा।( गौरतलब है कि 1979 में उत्तराखण्ड राज्य प्राप्ति के एकसूत्री लक्ष्य के लिए उक्रांद का गठन किया गया था।) …राज्य आंदोलनकारियों
के चिन्हीकरण हेतु निम्नलिखित मानक निर्धारित किये जाते हैं-
(क ) एल.आई. यू की रिपोर्ट,
(ख) पुलिस के अन्य अभिलेख यथा डेली
डायरी के प्रासंगिक अंश,
(ग) प्रथम सूचना रिपोर्ट (एफ.आई. आर) (घ) चिकित्सालय संबंधी रिपोर्ट।
,,, संबंधित समस्त अभिलेख उत्तराखण्ड राज्य आंदोलन से ही संबंधित होने चाहिए! (यह भी गौरतलब और महत्वपूर्ण है।)
30 मार्च 2009 के शासनादेश में इसमें संशोधन कर 22 अक्टूबर 2008 में निर्धारित मानक लागू करने का निर्देश दिया गया है। 22 अक्टूबर 08 के शासनादेश में एक और मानक (च) है – ऐसे अन्य अभिलेखों पर आधारित सूचनाएं जिनकी प्रमाणिकता जिलाधिकारियों द्वारा पुष्टि की जाए। इसके साथ (ग) में एफ.आई. आर. में ‘ जिस रूप में भी दर्ज हो’ जोड़ा गया है।
जारी,,,,