
टिहरी
आज राज्य के रूप में उत्तराखंड तेईसवें वर्ष में प्रवेश कर रहा है। इस मौके पर राज्य के वासियों को शुभकामनाएं ! राज्य निर्माण के बाद स्वाभाविक ही राजनीतिक- प्रशासनिक ढांचे का कई गुना विस्तार हुआ है और सरकारी बजट के आकार में भारी बढ़ोतरी ।
आमतौर पर शिकायतें हैं कि सिस्टम के बढ़े कुनबे का असली उद्देश्य जनता के इस माल को येन-केन प्रकारेण ठिकाने लगाना ही है।
स्थापना दिवस की पूर्व संध्या पर नई टिहरी मेंं राज्य आंदोलन के जनगीतों के साथ उस महागाथा को याद करने के लिए गोष्ठी का आयोजन किया गया। बताते हैं कि इस शहर में लगभग सैकड़ा पेंशनर्स राज्य आंदोलनकारी हैं, डेढ़ दर्जन भी नहीं जुटे थे। क्या अधिकांश लोग इसी से संतुष्ट हैं ? खांटी आंदोलनकारियों की तरह इनका स्वप्नभंग तो हो नही सकता है ! दुर्घटनावश आंदोलित हुए तो जो मिल रहा है यह खै(रा)त ही सही।
आजकल यह जुमला प्रायः सुनाई नहीं दे रहा है कि अटल जी ने दिया है, मोदी जी संवारेंगे। यह बदले निजाम के नजरिए में बदलाव का सूचक है या राज्य आंदोलन के इतिहास के समानांतर गढ़े जा रहे मिथकों को स्थापित करने की सत्तारूढ़ खेमे की चालाकी। दल-दलों की बात नहीं है, हैं तो एक ही हमाम के,,,,!
शहीदों के सपनों को साकार करने का संकल्प दोहराना जरूरी है, वे सपने क्या थे, संकल्प के धंधे में यह सवाल पूछना बेमानी है। संकल्पवानों को पता है कि जात-पांत, आवारा पूंजी जनता को मदमस्त करने के लिए काफी रही है, इसमें साम्प्रदायिक विद्वेष को चासनी बना शामिल कर लिया जाए तो चुनावी रंग चोखा।
गोष्ठी की अध्यक्षता कर रहे वरिष्ठ अधिवक्ता ज्योति प्रसाद भट्टजी की सरकारी कामकाज पर टिप्पणी गौरतलब है, फैसला वे (प्रशासनिक) अधिकारी देते हैं, जिन्होंने कानून की किताब ही नहीं पढ़ी है।
बहरहाल, जब कुर्सी और इसके फायदे ही अभीष्ट हों तो नैतिकता भाषणों के अलावा खूंटी पर टंगी ही दुरुस्त है। देवतुल्य के जुमलों की भूलभुलैया में ‘ खुद’ को खो रही जनता और मदमस्त सत्ता प्रतिष्ठान को इस पावन दिवस की हार्दिक बधाई !
आखिरकार, इस राज्य की जन्मपत्री पर देश की आजादी के बाद के लगभग साढ़े पांच दशकों के अनगिनत तपस्वियों के अमिट हस्ताक्षर भी तो दर्ज हैं।