
भौंकुछ :
ईवीएम बेचारी,,,
गरीब की जोरू गांव की भौजाई, यह मुहावरा था या मजाक, चलती तब भी दबंगों की थी और आज भी ।
मशीन आदमी ही बनाता है और बेचता है। बेचने खरीदने की प्रक्रिया में वह खुद कहां-कहां बिकता है, कितनी बार बिकता है, किस-किस के साथ, इस या उस या जो चाहे उसके हाथ यह उसे याद नहीं रहता है। बस बिकता जाता है और खुद को सही साबित करने के लिए दूसरों को गरियाता, लांछित करता है।
बेचारी मशीन को अपने को पाक- साफ साबित करने का मौका नहीं है। उसे बनाने वाले की मंशा क्या रही थी, लेकिन चलाने वाले हाथ बंधुआ मजदूर हैं, ऐसा लगने लगा है तो बात आदमी और उसकी नीयत पर ही अटक जाती है।
मशीन की हैसियत गरीब की जोरू जैसी है। इस्तेमाल होने के बाद सिर्फ सवाल उठाने वालों के लिए उसका “होना” है। लोकतंत्र के ठाकुर का कुआं और पण्डित का मन्दिर तो लाला की तिजोरी के साथ भारत के गौरव का डंका ब्रम्हांड तक बजाने वाला है। बजाने वालों बजाओ तालियां, यही तुम्हारी दुनिया है!
बहरहाल, लोकतंत्र के इस कोलाहल के बीच तटस्थ तुला की शुभकामनाएं !