चुनाव चर्चा -विक्रम बिष्ट-पहली बार मुख्यमंत्री का चेहरा चुनाव मैदान में।

उत्तराखण्ड विधानसभा का आगामी आम चुनाव इस मायने अभूतपूर्व और रोचक होगा कि सत्ता की सबसे बड़ी दावेदार भाजपा ने भावी मुख्यमंत्री का चेहरा मतदाताओं के सामने रखने का ऐलान किया है।
कहने को आम आदमी पार्टी ने भी मुख्यमंत्री पद का अपना दावेदार घोषित किया है। लेकिन कर्नल खुद के लिए कौन-सा मैदान चुनते हैं,अभी यह भी साफ नहीं है।
2002 के पहले आम चुनाव के परिणाम और मुख्यमंत्री दोनों अप्रत्याशित थे। जिस उत्तराखण्ड क्रांति दल ने पृथक पर्वतीय राज्य के लिए संघर्ष किया वह चार सीटों पर सिमट गया। उत्तराखण्ड राज्य के लिए सबसे पहले आवाज उठाने वाली भारतीय कम्यूनिस्ट पार्टी का खाता भी नहीं खुला। मुख्यमंत्री बनने का ख्वाब देख रहे मुन्ना सिंह चौहान खुद विकास नगर में चित हो गये। उनकी उत्तराखण्ड जनवादी पार्टी क्षेत्रीय राजनीति की जड़ों में मट्ठा डालकर अंतर्ध्यान हो गई।
केन्द्र में भाजपा नीत सरकार के कार्यकाल में उत्तरांचल नाम से राज्य बना। आखिरी दिनों में भगतसिंह कोश्यारी जैसे नेता को सत्ता सौंपने के बावजूद भाजपा सत्ता से बाहर हो गई। नित्यानंद स्वामी के नेतृत्व में चुनाव लड़ी होती तो शायद भाजपा दहाई का आंकड़ा भी नहीं छू पाती। स्वामी जी और उनके वित्त मंत्री डॉ निशंक सहित बड़े-बड़े भाजपाई चुनाव मैदान में धराशाई हो गए।
उत्तराखण्ड राज्य निर्माण की राह में कदम-कदम पर बाधा बनती रही कांग्रेस को पूर्ण बहुमत से सरकार बनाने का मौका मिला।
52-52 गज के छप्पन आंदोलनकारी संगठन खड़े करने वाले हरीश रावत के नेतृत्व में कांग्रेस ने वह चुनाव लड़ा था। उत्तराखण्ड राज्य निर्माण के घोर विरोधी नारायण दत्त तिवारी मुख्यमंत्री बन गये। अब तक पांच साल के लिए अकेले।
2007 का चुनाव भाजपा ने कोश्यारी के नेतृत्व में लड़ा और सत्ता के करीब पहुंच गई। उक्रांद के कुछ बड़े नेता कांग्रेस के पक्ष में थे। लेकिन नरेंद्र नगर के उसके विधायक ओमगोपाल की जिद के चलते भाजपा से सशर्त गठबंधन हुआ। जनरल खण्डूरी मुख्यमंत्री बने। फिर निशंक। फिर खण्डूरी। खण्डूरी है जरूरी के नारे के साथ भाजपा 2012 के चुनाव मैदान में उतरी। भाजपा संख्या बल में कांग्रेस के निकट तो पहुंच गई, लेकिन कोटद्वार के मतदाताओं ने खण्डूरी जी को जरूरी नहीं माना।
2017 में मुख्यमंत्री हरीश रावत दो सीटों से लड़े, अपने लेफ्टिनेंट सहित लुढ़क गये। जाहिर है सत्ता की दूसरी दावेदार कांग्रेस सोनिया, राहुल के सुपरिचित चेहरों पर चुनाव लड़ेगी।
बचा उक्रांद, 2002 का आंकड़ा पार कर ले तो कम से कम उत्तराखण्ड के मुद्दे तो जीवित रहेंगे।

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