
टिहरी
उक्रांद के कई नेताओं को आज भी मलाल है कि 1996 के लोकसभा चुनाव का बहिष्कार दल की बड़ी भूल थी। कुछ तो इसे हिमालय सरीखी भूल बता चुके हैं। हालांकि इस भूल की जिम्मेदारी लेने को कोई तैयार नहीं है। इन्द्रमणि बडोनी 1999 में अपना उत्तराखण्ड राज्य देखे बिना दुनिया से विदा हो गए थे। इसलिए कुछ लोगोंं को इस भूल के लिए उन्हें जिम्मेदार ठहराना सहज है।
आज तक उक्रांद नेता यह नहीं बताते हैं कि चुनाव बहिष्कार का निर्णय वास्तव में कब किसने लिया था। बहिष्कार का निर्णय उत्तराखण्ड संयुक्त संघर्ष समिति नाम के भानुमति के कुनबे का था। इसमें उक्रांद के अलावा भाकपा और बड़़ी संख्या में कांग्रेसियों का जमावड़ा था। उनमें कुछ को अपनी राजनीतिक जमीन खोने का डर था, तो कुछ को अपनी पहचान बनाने के लिए ठिया चाहिए था।
भाजपा ने खुद को इससे अलग रखा । उसे लोकसभा चुनाव में पौड़ी और नैनीताल सीटें खोने के बावजूद फायदा ही हुआ। पौड़ी से तिवाड़ी कांग्रेस के प्रदेश अध्यक्ष सतपाल महाराज जीते और केन्द्र सरकार में मंत्री बने। महाराज बडोनी जी के साथ समिति के संरक्षक रहे थे। माना यही जाता है कि उक्रांद चुनाव लड़ता तो टिहरी और अल्मोड़ा-पिथौरागढ लोकसभा सीट पर इसकी जीत तय थी। 1989 के लोकसभा चुनाव में इन सीटों पर उक्रांद के प्रत्याशी क्रमशः लगभग बारह और आठ हजार मतों से हारे थे।
चुनाव बहिष्कार का सबसे ज्यादा असर टिहरी लोकसभा सीट पर हुआ था। चुनाव जीते भाजपा के मानवेन्द्र शाह एक लाख मतों का आंकड़ा नहीं छू सके थे। उक्रांद के साथ केवल भाकपा बहिष्कार में शामिल रही थी।
उसके बाद उक्रांद ने यूपी विधानसभा चुनाव लड़ा और 1991 के बाद दूसरी बार खाली हाथ रहा। लोकसभा चुनाव का बहिष्कार उक्रांद के लिए आत्मघाती साबित हुआ और उससे बहुत ज्यादा नुकसानदेह उत्तराखण्ड के लिए। आज राज्य की जिस दशा का रोना रो रहे हैं, चुनाव बहिष्कार इसकी बड़ी वजह रही है।