
टिहरी
14 अगस्त 1995 का हिमालय दर्पण दैनिक। शीर्षक डेस्क का है, बाघ की जगह भेड़िया। वरना स्थितियां तो और भी भयावह होती आ रही हैं। वन विभाग और सरकारी वेतनभोगी विशेषज्ञों की बाजीगरी, सांत्वनाजीवियों की तोतारटंत बाघ, गुलदार में हमलावर कौन था और तमाम तरह के शाब्दिक जाल में उलझाने के काम आती है। उन्हें और उनके पालितों के लिए स्थान सुरक्षित हैं। आदमियों की शक्ल में भेड़िये पहले भी शिकार करते थे, बहाने बना छुपाकर, हर जगह। लेकिन …अब तो डंके की चोट पर,,, जाहिर है संविधानिक पीठों की गरिमा भी उनके लिए अपचनीय है।
भारत की आदि ज्ञानपीठ उत्तराखण्ड को वनंत्रा बनाने की कोशिशें वनाग्नि के मुकाबले बहुत तेजी से फैलाई जा रही है। जंगल, नदी, बाघ, रीख और सभी कुछ दांव पर हैं।