
उत्तराखंड
जोशीमठ में भू धंसाव का आकलन करने सोमवार को यहां आ रही केंद्रीय जलशक्ति मंत्रालय की हाईपावर एक्सपर्ट कमेटी नए सिरे से पड़ताल करेगी। उसके एजेंडे में एनटीपीसी के इस प्रोजेक्ट का अध्ययन भी है।जोशीमठ के स्थानीय लोगों ने एनटीपीसी के खिलाफ पहले से जंग छेड़ रखी है। रुड़की के राष्ट्रीय जल विज्ञान संस्थान (एनआईएच) के वैज्ञानिक टनल और जोशीमठ के रिसाव के पानी के नमूनों की जांच कर रहे हैं। ये दोनों नमूने मैच कर गए तो इस प्रोजेक्ट पर ताला भी लग सकता है।दरअसल, एनटीपीसी यहां तपोवन से लेकर विष्णुगाड़ तक 12 किलोमीटर लंबी टनल बना रही है। तपोवन एक सिरा है और विष्णुगाड़ दूसरा। बीच में ऊंची पहाड़ी के ढलान पर जोशीमठ बसा है। एनटीपीसी की योजना तपोवन में बह रही सहायक नदी धौलीगंगा के पानी से बिजली बनाने की है। ये पानी तपोवन से टनल के जरिये एनटीपीसी के पावर हाउस सेलंग तक आएगा। बिजली बनाने के बाद इस पानी को विष्णुगाड़ स्ट्रीम के रास्ते अलकनंदा नदी में छोड़ दिया जाएगा।पहली नजर में ये प्रोजेक्ट जितना आसान दिखता है, उतना है नहीं। एनटीपीसी की टनल वैज्ञानिक भाषा में ‘इन सीटू रॉक’ को काटकर बनाई जा रही है। इन सीटू रॉक उस चट्टान को कहा जाता है जो सदियों से यथावत है। यह भूस्खलन के मलबे यानी पत्थरों, चट्टानों या मिट्टी से बना कोई पहाड़ नहीं जैसा कि जोशीमठ का है। मिश्रा कमेटी 1976 की अपनी रिपोर्ट में कह चुकी है कि जोशीमठ इन सीटू चट्टान पर नहीं बल्कि ये भूस्खलन के मलबे से बनी चट्टान पर बसा है। एनटीपीसी ने बाकायदा नक्शा जारी कर समझाने की कोशिश की है कि ऐसा संभव ही नहीं है। क्योंकि ये टनल जोशीमठ से बहुत दूर बन रही है। शहर की सबसे करीबी सीमा से भी नापे तो टनल शहर से कोई एक किमी. दूर है। जोशीमठ शहर का आधा हिस्सा भू-धंसाव की चपेट में है। और ये प्रभावित हिस्सा तो टनल से और दो-ढाई किमी दूर पड़ता है। इतनी दूर किसी टनल का दुष्प्रभाव पड़ना वैज्ञानिक नहीं है। उनका दूसरा तर्क है कि टनल को बनाने के साथ ही उसे मजबूत कंक्रीट से सुरक्षित किया जाता है ताकि एक बूंद पानी लीक न हो। एनटीपीसी का तीसरा तर्क है कि इस परियोजना को शुरू हुए अभी बीस साल भी पूरे नहीं हुए जबकि जोशीमठ में भू धंसाव के संकेत एडविन टी एटकिंग ने अपने हिमालयन गजेटियर में 1886 ई. में ही दर्ज कर लिए थे।

ऑलवेदर चार धाम रोड परियोजना पर हाई पावर कमेटी (एचपीसी) के पूर्व अध्यक्ष अब पर्यावरण के लिए काम कर रहे रवि चोपड़ा कहते हैं कि 1976 में मिश्रा समिति ने साफ चेतावनी दी थी कि ये संवेदनशील इलाका है। यहां कोई बड़ा निर्माण कार्य नहीं शुरू किया जाना चाहिए। आखिर ये पहाड़ जोशीमठ का ही हिस्सा है। पहाड़ों में सुरंगें बनेंगी तो उसका असर तो दिखेगा ही। इससे दुनिया का कौन सा वैज्ञानिक इन्कार कर सकता है। हमने सुरंग खोदकर पहाड़ पर अतिरिक्त दबाव बनाया, जिसने एक बड़े जलभृत को छिद्रित कर दिया है।