भौंकुछ – विक्रम बिष्ट दन दनादन, धन रे तेरी माया

टिहरी
धन तू चंचला है, यह हमारे महान संत चेताते रहते हैंं। इतना ही नहीं वे भक्तों को माया मोह ठगनी से बचाने के लिए इसे आत्मसात भी करते हैं, ले प्रभु क्या लागे मेरा। हम ठहरे कलजुगी नास्तिक, क्या समझें कि हमारे पापों को धोने के लिए इन संतों को क्या- क्या पापड़़ बेलने पड़ते हैं। नमक, तेल, मसाले, साबुन और इसके साथ आस्था का व्यापार सब कुछ। हमारे पूर्वजों ने जिसकी कल्पना नहीं की है।
ऐसे कई दिव्य पुरुष काल कोठरी जैसी गुफाओं में अखण्ड साधना में हैं। जबकि ये इतने प्रतापी और प्रचण्ड प्रलापी हैं कि आंखें झपकाते ही अपने देश में कोयले में हुई दलाली की सात समंदर पार रखी गई रकम गिनकर बता देते हैं। मंशा घोषित रूप से यह है कि उस काले धन को वापस लाकर राष्ट्रनिर्माण के पुण्य कार्य में लगाया जाए । लगा भी रहे होंगे, ऐसी पुण्य आत्माओं से यह पूछना उचित है कि कहां-कहां लगा रहे हैं?
पूछने के चक्कर में हम घनचक्कर बन जाते हैं। जैसे चार लाख करोड़ रुपए पन्द्रह – पन्द्रह लाख रुपयों की थैलियों मे़ हर घर आने वाले थे, बिल्कुल स्वच्छ गुलाबी रंग में गांधी की अनावश्यक छवि के साथ दो हजार के नोटों के रूप में ? अब बता रहे हैं कि दाल में मतलब इस नोट में भी काला है। जल्दी ही इसकी जगह क्लीन नोट आयेगा। बजाओ ताली ! अगली बार गांधी मुक्त भारत पक्का। सिक्कों से शुरुआत कर दी है न।
खैर अब किधर , बैटरी बता रही है मैं जा रही हूं, उधर से चेतावनी आ रही है कि आपके आधार कार्ड का कई लोग इस्तेमाल कर रहे हैं। पहचान गुप्त का दावा भी फुस्स..

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