11 अगस्त का इतिहास: खुदीराम बोस वो क्रांतिकारी जो 18 की उम्र में हाथ में गीता लेकर फांसी पर चढ़ गया

इतिहास

देश की आजादी की लड़ाई में कुछ नौजवानों का बलिदान इतना उद्वेलित करने वाला था कि उसने पूरे देश में स्वतंत्रता संग्राम का रूख बदलकर रख दिया। इनमें एक नाम खुदीराम बोस का है, जिन्हें 11 अगस्त 1908 को फांसी दे दी गई। उस समय उनकी उम्र महज 18 साल कुछ महीने थी। अंग्रेज सरकार उनकी निडरता और वीरता से इस कदर आतंकित थी कि उनकी कम उम्र के बावजूद उन्हें फांसी की सजा सुनाई गई। यह बालक हाथ में गीता लेकर ख़ुशी-ख़ुशी फांसी चढ़ गया। खुदीराम की लोकप्रियता का यह आलम था कि उनको फांसी दिए जाने के बाद बंगाल के जुलाहे एक खास किस्म की धोती बुनने लगे, जिसकी किनारी पर खुदीराम लिखा होता था और बंगाल के नौजवान बड़े गर्व से वह धोती पहनकर आजादी की लड़ाई में कूद पड़े। बहुत कम उम्र में ही उनके माता-पिता का निधन हो गया था.

खुदीराम बोस को आजादी के लिए फांसी पर चढ़ने वाला सबसे कम उम्र का क्रांतिकारी माना जाता है.

खुदीराम बोस के माता-पिता की मृत्‍यु के बाद उनकी बड़ी बहन ने उनका पालन-पोषण किया. उन पर देश को आजाद कराने का ऐसा जुनून सवार हुआ कि 9वीं कक्षा में ही पढ़ाई छोडकर स्‍तंत्रता के आंदोलन में कूद पड़े. बंगाल का 1905 में विभाजन होने के बाद बोस ने अपने क्रांतिकारी जीवन की शुरुआत सत्‍येंद्रनाथ बोस के नेतृत्‍व में की. वह रिवॉल्‍यूशनरी पार्टी के सदस्‍य बन गए और वंदेमातरम् के पर्चे बांटने लगे. पहली बार उन्‍हें 28 फरवरी 1906 को गिरफ्तार किया गया, लेकिन वह कैद से भागने में कामयाब हो गए. उन्‍हें दो महीने बाद फिर पकड़ लिया गया. इसके बाद उन्‍हें 16 मई 1906 को चेतावनी देकर जेल से रिहा कर दिया गया.

खुदीराम नाम रखे जाने की भी है कहानी
खुदीराम बोस के क्रांतिकारी जीवन के बारे में जानने से पहले जान लेते हैं कि उनका ये नाम कैसे पड़ा, क्‍योंकि इसकी भी एक कहानी है. दरअल, खुदीराम के जन्म से पहले उनके दो भाइयों की बीमारी के कारण मृत्‍यु हो गई थी. लिहाजा, उनके माता-पिता खुदीराम के जन्‍म के बाद काफी डरे हुए थे. उन्‍होंने अपने तीसरे बेटे को बचाने के लिए एक टोटका किया. इसमें उनकी बड़ी बहन ने चावल देकर खुदीराम को खरीद लिया. दरअसल, बंगाल में चावल को खुदी कहा जाता था, तो चावल के बदले खरीदे जाने के कारण उस दिन से उनका नाम खुदीराम पड़ गया.

जज किंग्‍सफोर्ड की हत्‍या की जिम्‍मेदारी
खुदीराम बोस को जब पहली बार गिरफ्तार किया गया था, उन दिनों जिला जज डगलस किंग्सफोर्ड हुआ करता था. जज किंग्‍सफोर्ड से भारतीयों और खासकर क्रांतिकारियों को सख्त नफरत थी. वह भारतीयों को कोडेों की सजा देता था. उसने 15 साल के खुदीराम को भी 15 कोड़े मारने की सजा सुनाई थी. जब क्रांतिकारियों ने जज किंग्‍सफोर्ड की हत्‍या करने की योजना बनाई तो इस काम को 8 अप्रैल 1908 को अंजाम देने की जिम्मेदारी खुदीराम बोस और उनके साथियों को दी गई. खुदीराम बोस औऱ उनके साथी क्रांतिकारी प्रफुल्ल चाकी ने पहले पार्सल बम से जज डगलस को मारने की कोशिश थी. हालांकि, किंग्सफोर्ड पार्सल नहीं खोले के कारण बच गया. इसमें जज की जगह एक कर्मचारी घायल हो गया.

बम फेंककर हत्‍या की योजना बनाई
जज किंग्सफोर्ड ने हत्‍या की नाकाम कोशिश के बाद अपना तबादला बंगाल की जगह बिहार के मुजफ्फरपुर में करा लिया. अब खुदीराम बोस और प्रफुल्ल चाकी को युगांतकारी संगठन ने मदद की. दोनों को पिस्तौल और कारतूस देकर बिहार भेज दिया गया. खुदीराम बोस और प्रफुल्ल चाकी 18 अप्रैल 1908 को मुजफ्फरपुर पहुंच गए. दोनों ने किंग्सफोर्ड पर नजर रखनी शुरू कर दी. इसी दौरान खूफिया जानकारी दी गई कि किंग्सफोर्ड पर हमला हो सकता है. लिहाजा, उसकी सुरक्षा बढ़ा दी गई. किंग्सफोर्ड पर नजर रख रहे खुदीराम और प्रफुल्ल को यह पता चल गया कि वह अपनी पत्‍नी के साथ स्टेशन क्लब आता था. योजना बनाई गई कि किंग्सफोर्ड जब पत्‍नी के साथ बग्घी से वापस आएगा, तभी बम फेंककर उसकी हत्या की जाएगी.

फिर बच गया जज डगलस किंग्‍सफोर्ड
जज डगलस 30 अप्रैल 1908 को शाम साढ़े 8 बज बग्घी में सवार होकर निकला. जब बग्घी किंग्सफोर्ड के घर पर पहुंची तो दोनों ने बम फेंक दिया. लेकिन, इस बार भी किंग्सफोर्ड की जान बच गई. दरअसल, खुदीराम और प्रफुल्‍ल ने जिस बग्घी पर बम फेंका, वो डगलस की नहीं थी. वह उसके परिवार के साथ चलने वाली दो महिलाओं की थी. हमले में एक महिला की मौत हो गई थी. हमला करने वालों की जानकारी देने वाले को 5,000 रुपये का इनाम देने की घोषणा कर दी गई. दोनों को ढूंढने के लिए पुलिस लगा दी गई. हमले के बाद खुदीराम और प्रफुल्ल अलग हो गए. दोनों ने तय किया कि वे अब कलकत्‍ता में दोबारा मिलेंगे.

खुदीराम को दी गई फांसी की सजा
खुदीराम बोस को 1 मई 1908 को वैनी रेलवे स्टेशन पर अंग्रेज सिपाहियों ने गिरफ्तार कर लिया. तलाशी में खुदीराम की जेब से 37 कारतूस और 30 रुपये मिले. बाद में पता चला कि उनके साथी प्रफुल्‍ल चाकी ने पुलिस से घिरने पर खुद को गोली मारकर शहादत दे दी. खुदीराम बोस को हमले का दोषी मानकर मुजफ्फरपुर की जिला अदालत लाया गया. खुदीराम बोस पर अपर सत्र न्यायाधीश एचडब्ल्‍यू कॉर्नडफ की अदालत में हत्या का मुकदमा चला. एक महीने तक चले मुकदमे के बाद अदालत ने खुदीराम बोस को फांसी की सजा सुनाई. खुदीराम बोस की तारीफ में लोकमान्य बाल गंगाधर तिलक ने कई लेख लिखे थे.

चला खुदीराम के नाम वाली धोती का चलन
खुदीराम बोस को 11 अगस्‍त 1908 को मुजफ्फरपुर जेल में फांसी दिए जाने के बाद विद्यार्थियों समेत बड़ी संख्‍या में लोगों ने कई दिन तक शोक मनाया. सभी स्‍कूल और कॉलेज कई दिन तक बंद रखे गए. इसी दौरान बंगाल के जुलाहों ने एक ऐसी धोती बनाई, जिसके किनारों पर खुदीराम बोस लिखा था. इस धोती को सैकड़ों-हजारों युवाओं ने हाथों-हाथ लिया. हालात ऐसे हो गए कि ज्‍यादातर युवा खुदीराम बोस लिखी धोती ही पहने हुए नजर आने लगे.

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