भौं कुछ- विक्रम बिष्ट: फेंकते रहिए …….

फेंकते रहिए…


यद्यपि मैं इसके खिलाफ हूं कि हमारे प्रदेश के किसी प्रकार के टुकड़े हों, लेकिन यदि यही स्थिति रही और हमारे पूर्व के और बुन्देलखण्ड के जो पिछड़े इलाके हैं, उनकी ओर कोई ध्यान नहीं दिया गया तो जब तीन लाख की जनसंख्या वाले इलाके में मेघालय बन सकता है तो लगभग ४० लाख जनसंख्या वाले पर्वतीय क्षेत्र की आवाज भी उठ सकती है, लेकिन वहां की जनता को ऐसा करने के लिए यह सरकार बाध्य न करे, यह मेरी उनसे प्रार्थना है। पर्वतीय क्षेत्र की समस्यायों पर इन्द्रमणि बडोनी जी का उत्तर प्रदेश विधानसभा में ८ मई १९७० के भाषण का अंश।
स्पष्ट है कि विधायकी के दूसरे कार्यकाल के शुरुआती दौर में बडोनी जी पृथक पर्वतीय या उत्तराखण्ड राज्य निर्माण के पक्षधर नहीं थे।
तो फिर उनका विचार कैसे बदला। हमारे यशस्वी, तपस्वी कांग्रेस के नेता जी की प्रेरणा से! उनका दावा है कि बडोनी जी को वही उत्तराखण्ड आंदोलन में लाये थे।
बड़े नेताओं की बड़ी बात है, यूं ही हमारे इतिहास ज्ञान को बढ़ाने के लिए कृपापूर्वक कह दिया होगा, अन्यथा इतनी मामूली बात का खुलासा अपने मुंह से क्यों करते।
खैर दिल्ली वालों की दिल्लगी की बात ही कुछ और है। दिलजलों का आरोप है कि वे फेंकते ज्यादा हैं। विकास और सख्त प्रशासन की छवि वाले भी दिल्ली आने, जमने और जमे रहने के लिए फेंकने की कला में निपुण होना जरूरी समझते हैं। वक़्त-बेवक्त, जहां-तहां फेंकना अनिवार्य है। बल्कि फेंकना ही अनिवार्य है। बाकी तो जनता जनार्दन है ही।
उत्तराखण्ड हिमालय की हवा, पानी से दिल्ली का दिल धड़कता है। इसलिए दिल्ली के रहनुमाओं का दिल उत्तराखण्ड के लिए कुछ ज्यादा ही धड़कता-फड़कता है।
वे खांटी दिल्ली के हों या मजबूरी के। मजबूरी के हैं तो राजनीति के बिना उत्तराखण्ड के लिए दिल ईमानदारी से धक-धक नहीं कर सकता है।
दिल धक-धक करने लगे तो फेंकना जरूरी हो जाता है। १९९४ में उत्तराखण्ड आंदोलन तेज हुआ तो उसको बिखराव, भटकाव और हिंसा की आग में धकेलने की पटकथा भी दिल्ली में ही लिखी गई थी। आंदोलनकारियों के हथियारों के साथ दिल्ली आने की बात हो या जांच के बहाने मुजफ्फरनगर में उनको रोकने के दिशा-निर्देश दिल्ली से ही जारी किए गये थे। लखनऊ में बैठे अमानवीय अत्याचार करने वालों पर भी दिल्ली की छत्र-छाया थी।
अब उत्तराखण्ड को दिल्ली बनाना है तो फेंकना जरूरी है। वैसे तो वक़्त-बेवक्त परमावश्यक है। चेले-चांठों को भी तो कुछ काम चाहिए।
उनकी तारीफ का पुण्य प्राप्त करने के लिए कुछ और लिखता कि बाहर नगर पालिका की गाड़ी चीख-पुकार कर रही है- कचरा निकाल!

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