सियासत :विक्रम बिष्ट -उत्तराखण्ड का राजनीतिक अभिशाप- दल-बदल।


लोक की आत्मजागृति ही लगा सकती है इस प्रवृत्ति पर अंकुश
सत्तर अस्सी के दशकों में हेमवती नंदन बहुगुणा जी ने कई बार दल बदले। पत्रकार कुंवर प्रसून ने इस पर एक रोचक टिप्पणी लिखी थी। फल्द यथैं- फल्द वथैं,,,,, तुम्हारा पिछाड़ी कु बल्द कथैं। बीते दशक के उत्तरार्ध से उत्तराखंड की राजनीति में यह भटकाव शिष्टाचार की हदें पार कर गया है।
कभी राजनीति में सिद्धांतों और अंतरात्मा की सच्ची- झूठी बातें होती थीं। १९८० में बहुगुणा जी की ससम्मान वापसी हुई थी। लेकिन जानकार बताते हैं कि वह कांग्रेस नेतृत्व का दिखावा ही ज्यादा था। बहुगुणा जी के कांग्रेस छोड़ने और पौड़ी गढ़वाल संसदीय चुनाव के क़िस्से आज भी याद किए जाते हैं।
भाजपा अलग किस्म की राजनीति का दावा करती है। उत्तराखण्ड बनने के बाद दो मर्तबा मुख्यमंत्री पद के चांस गंवाने के बाद इस पद पर आसीन होने के बाद हरीश रावत जी ने विरोधी गुटों के नेताओं से किस तरह का व्यवहार किया था, ये बातें तो संबंधित लोग ही जानते होंगे। लेकिन भाजपा ने उस स्थिति का फायदा उठाया। उसे दोष दें अथवा नहीं ? कांग्रेस छोड़ बीजेपी में शामिल लगभग सभी नेताओं को जनता ने चुनाव जिताया। अब जनादेश पर कैसे सवाल उठाएं!
चुनाव आते-आते अभी कई कूद-फांद होंगी। अंतिम फैसला जनता को ही देना है।
बहुगुणा जी ने एक बार कहा था कि जनता भी कोई अवध्य गाय नहीं है। क्या उनकी इस टिप्पणी के निहितार्थ समझने का समय अभी दूर है?

Epostlive.com

103 thoughts on “सियासत :विक्रम बिष्ट -उत्तराखण्ड का राजनीतिक अभिशाप- दल-बदल।

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *