भौंकुछ- विक्रम बिष्ट :हमारे मंत्री कम खाते हैं


मंत्रियों का सरकारी प्रोटोकॉल होता है। यह रुतबा है या अहंकार प्रदर्शन या लोकतंत्र का मजाक!
पांच साल में कुछ दिनों के लिए जनार्दन बनने वाली जनता द्वारा चुने गए हों या कड़ी मेहनत से पढा़ई- लिखाई कर बने हुक्मरान, भोजन तो सभी के लिए अनिवार्य है।
लाव लश्कर भी अनिवार्य. है। यह सनातन परंपरा है। सामंती युग से। रावण का प्रोटोकॉल न भूतो न भविष्यति। दस सिर अर्थात दस मुंह! पेट के बारे में ऋषि वाल्मीकि से लेकर संत तुलसीदास तक रामायण खामोश। केन्द्र में कई महान मंत्रियों के साथ कुछ त्रिकालदर्शी भी हैं, डार्विन जीवित होते तो खम ठोककर चुनौती देते।
बात तब की है जब हम उत्तर प्रदेश में थे। मंत्री जी दौरे पर आए थे। खबर तो थी ही। खबर के भीतर भी खबर होती है।
बताते हैं कि मंत्री जी की आवाभगत में मात्र तीस मुर्गे, मुर्गियों की बलि दी गई। जाहिर है कि यह खबर नहीं थी। बाद में पता चला कि मंत्री जी पूरी तौर पर शाकाहारी हैं।
यह सामान्य सा प्रश्न था कि एक शाकाहारी मंत्री जी का दौरा तीस मुर्गे-मुर्गियों से तृप्त होता है तो मांसाहारी मंत्री जी का दौरा?
अब छोटा राज्य है तो खर्च कम ही होता है। मंत्री जी भले दो रोटी सब्जी ही लें। बाकी का भी तो बनता है। मंत्री जी के साथ सरकारी भोजन करने से रुतबा बनता है खासकर सरकारी अमले के सामने।
कई लोग हैं जो मेज ठोक कर अधिकारियों पर अहसान जताते हैं कि उत्तराखंड राज्य हमने बनाया है, हमारी बदौलत सामने की कुर्सी पर हो। बात भी सही है बेशक तब आंदोलनकारियों की चुगली ही करते रहे हों, योगदान तो है ही!
तिवारी सरकार ने सुदि-मुदि उत्तराखंड आंदोलनकारियों के चिन्हीकरण का निर्णय तो नहीं लिया! और जिम्मेदारी भी,,,
दिल्ली में पूर्व प्रधानमंत्री चौधरी चरण सिंह के नाम सरकारी बंगला था उनके सुपुत्र अजित सिंह वहां रहते थे। एक दिन हम भी घूमते फिरते उधर चले गए। वहीं से एक शख्स आंदोलनकारियों का उद्धार करने हेतु अवतरित किये गये। उत्तराखंड संयुक्त संघर्ष समिति के स्वयंभू समन्वयक!

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