
आज है जन्मतिथि।
चाहे महात्मा गाँधी रहे हों, लाला लाजपत राय रहे हों, भगत सिंह, राजगुरू, सुखदेव, चन्द्रशेखर आजाद या सुभाष चन्द्र बोस रहे हों। इसी क्रम में एक नाम गढ़वाल के प्रसिद्ध स्वाधीनता सेनानी श्रीदेव सुमन का आता है। यद्यिपि वे टिहरी को सामन्तशाही से मुक्त होते न देख सके पर आज उन्हें स्मरण करते बरबस किसी कवि की पंक्तियाॅ स्मरण हो आती हैं – ‘‘अगर जिंदगी है तो ख्वाब हैं, ख्वाब हैं तो मंजिलें हैं, मंजिले हैं तो रास्ते हैं, रास्ते हैं तो मुश्किलें हैं, मुश्किलें हैं तो हौसला है, हौसला है तो विश्वास है, विश्वास है तो जीत है।
जब तक गगन में सूरज चाॅद रहेगासुमन अमर तुम्हारा नाम रहेगा।विश्व में समय समय पर कुछ ऐसी विभूतियों ने जनम लिया जो अल्प आयु में अपने महान कार्यों से, समाज के लिए तथा अपनी जन्म भूमि के लिए दी गई अपनी शहादत से हमेशा के लिए अमर हो गये। जैसे बंगाल में जन्मे यतीन्द्र नाथ दास जो मात्र पच्चीस वर्ष की अल्प आयु में शहीद हो गये थे और आयरलैंड में जनमें क्रांतिकारी मैक्सिविनी जिन्होंने 70 दिन का आमरण अनशन किया फिर अंत में अपने देश के लिए बलिदान हो गये। ऐसे अनेक महान पुरूषों के सम्पूर्ण जीवन का अध्ययन करने से पता चलता है जैसे उनका जन्म ही अपने क्षेत्र और समाज के उत्थान के लिये हुआ हो। क्योंकि अपने जीवन का एक दिन भी इन्होंने कभी सुख, शाॅंति से नहीं व्यतीत किया।

गढ़वाल के प्रसिद्ध स्वाधीनता सेनानी श्रीदेव सुमन का आता है। यद्यिपि वे टिहरी को सामन्तशाही से मुक्त होते न देख सके पर आज उन्हें स्मरण करते बरबस किसी कवि की पंक्तियाॅ स्मरण हो आती हैं – ‘‘अगर जिंदगी है तो ख्वाब हैं, ख्वाब हैं तो मंजिलें हैं, मंजिले हैं तो रास्ते हैं, रास्ते हैं तो मुश्किलें हैं, मुश्किलें हैं तो हौसला है, हौसला है तो विश्वास है, विश्वास है तो जीत है। ‘संघषरर्त रहते यदि इन सब सेनानियों ने शक्तिशाली शक्तियों के विरूद्ध यदि पराजय स्वीकार कर ली होती तो हम आज के दिनों की अपनी स्वतन्त्रता की कल्पना भी नही कर सकते थे।
गढ़वाल देश के विभाजन के बाद बिट्रिश गढ़वाल पौड़ी ने जहाॅ अपनी विकास की गाथा लिखी वहीं सामन्त शाही और राजतन्त्र की क्रूरता को झेलता टिहरी केवल राजशाही के कारिन्दों को छोड़ और किसी का भला न कर सका। इन्ही परिस्थितियों में श्रीदेव सुमन को संघर्ष की प्रेरणा मिली। सुमन जी का जनम 25 May 1916 को टिहरी के बहुत पिछड़े गाॅव जौल (चम्बा) में हुआ था। उनके पिता इलाके के प्रख्यात वैद्य थे। पंडित हरिराम बड़ोनी और श्रीमती तारा देची के घर जिस बालक ने जनम लिया तब किसी ने कल्पना भी नहीं की थी टिहरी की राजशाही से मुक्ति दिलाने वाले महापुरूष ने जन्म ले लिया है।

जनता की तत्कालीन परिस्थितियों और राजशाही की निरंकुशता का आप पर गहरा प्रभाव पड़ता जा रहा था जिस कारण अनेक स्थानों की यात्रा की देश के महान पुरूषों विशेषकर श्रीनगर के अधिवेशन में पं जवाहर लाल नेहरू तो वर्धा में महात्मा गाँधी जी से मिलने गये, तथा कालेकर जैसे महापुरूषों का सान्निध्य प्राप्त हुआ और उनके सामने गढ़वाल की जनता की समस्याओं और राजशाही की तानाशाही को रखा। यह कटु सत्य है कि अभाव संकट गरीबी ही एक सीधे सच्चे सरल ईमानदार और संवेदनशील व्यक्ति को लेखक, कवि, साहित्यकार बनने को प्रेरित करती है। स्वाभाविक था इस कारण साहित्य की ओर सुमन का रूझान हुआ। तब आपने ‘हिन्दी पत्र बोध‘ नामक पुस्तक तथा सुमन सौरभ (काव्य संग्रह) की रचना की।
राजमहल की पहाड़ी के ठीक समाने लगभग ढेड़ किलोमीटर दूर भिलंगना के जबर्दस्त शोर के ऊपर सुनसान निर्जन स्थान पर जिससे उन पर आठों पहर नजर रखी जा सके, एक मात्र जर्जर अंधेरी काल कोठरी में उनके कमजोर शरीर पर 36 सेर वजन की भारी बेड़ियाॅ हाथ पाॅव गले में डालकर कैद कर दिया गया। जब राजशाही के जुल्म नहीं रूके तब उन्होंने उस काल कांठरी में ही 3 मई 1944 को आमरण अनशन प्रारम्भ कर दिया। 84 दिन के ऐतिहासिक आमरण अनशन के बाद वे चल बसे लेकिन राजशाही के सामने घुटने नही टेके। राजा के निर्देश पर 25 जुलाई की अर्ध रात्री में जब मूसलाधार बारिश हो रही थी बिना किसी को बताये उनको शव को भिलंगना की लहरों के हवाले कर दिया गया था।
यूॅ तो टिहरी के स्वतन्त्रता आन्दोलन और राजशाही के विरूद्ध आन्दोलन में नागेन्द्र सकलानी, मोलू सिंह भरदारी के बलिदान को भी भुलाया नहीं जा सकता कभी लेकिन यह भी तय है कि ‘‘जब तक गगन में सूरज चाॅद रहेगा, सुमन अमर तुम्हारा नाम रहेगा।‘‘ बाद में सरकार ने उनकी स्मृति में टिहरी बाॅध का नाम ‘सुमन सरोवर‘ तथा ‘श्रीदेव सुमन विश्वविद्यालय‘ स्थापित कर सम्पूर्ण गढ़वाल की ओर से अपने श्रृद्धासुमन अर्पित किये।