उत्तराखंड
इंद्रमणि बडोनी सम्मान समारोह: दून लाइब्रेरी में बीज बचाओ आंदोलन के प्रणेता विजय जड़धारी सम्मानित
उत्तराखंड की धरती पर जब भी लोक चेतना, संघर्ष और प्रकृति संरक्षण की बात होगी—दो नाम हमेशा गूंजेंगे। पहला, उत्तराखंड राज्य आंदोलन के जननायक इंद्रमणी बडोनी, और दूसरा, बीज बचाओ आंदोलन के प्रणेता विजय जड़धारी। आज जब विजय जड़धारी को स्व. इंद्रमणी बडोनी स्मृति सम्मान से विभूषित किया गया, तो यह महज एक व्यक्ति का सम्मान नहीं, बल्कि पारंपरिक कृषि, बीजों की विरासत और प्रकृति संरक्षण की पूरी विचारधारा का अभिनंदन है।
सोमवार को दून लाइब्रेरी एवं शोध केंद्र में इंद्रमणि बडोनी सम्मान समारोह में वरिष्ठ आंदोलनकारी एवं बीज बचाओ आंदोलन के प्रणेता विजय जड़धारी को सम्मानित किया गया। स्व. इंद्रमणि बडोनी की पुण्य तिथि के अवसर पर हुए कार्यक्रम में मुख्य अतिथि गढ़रत्न वरिष्ठ लोकगायक नरेंद्र सिंह नेगी, विशिष्ट अतिथि पद्मश्री कल्याण सिंह रावत, इंद्रमणि बडोनी चैरिटेबल फाउंडेशन के विनोद बडोनी ने जड़धारी को सम्मान पत्र और 51 हजार रुपए प्रदान किए। कार्यक्रम में इंद्रमणि बडोनी पर पुस्तक का विमोचन हुआ, जिसके लेखक गिरीश बडोनी, अनिल नेगी और संपादक गणेश कुकसाल हैं। कार्यक्रम में लोकगायक नरेन्द्र सिंह नेगी, पद्मश्री कल्याण सिंह रावत, डॉ. शैलेन्द्र मैठाणी, गिरीश सुंद्रियाल स्व. इंद्रमणि बडोनी के विचारों, विजय जड़धारी के चार दशक लंबे संघर्ष को याद किया।
बीना बेंजवाल ने सम्मान पत्र पढ़ा। विजय जड़धारी ने सम्मान के लिए आभार जताते हुए इंद्रमणि बडोनी के विचारों एवं सिद्धांतों को आगे बढ़ाने पर जोर दिया। उन्होंने उत्तराखंड में विकास के नाम पर पर्यावरण और पहाड़ों को पहुंचाए जा रहे नुकसान पर चिंता व्यक्त की।
कार्यक्रम में श्री इंद्रमणि बडोनी पर पुस्तक का लोकार्पण भी हुआ जिसको गिरीश बडोनी एवं अनिल नेगी ने लिखा था और संपादन गणेश कुकसाल ने किया।
बताया जाए कि 2023 से हर साल श्री इंद्रमणि बडोनी चैरिटेबल फाउंडेशन की और से श्री इंद्रमणि बडोनी के पुण्यतिथि 18 अगस्त के अवसर पर “सम्मान समारोह” आयोजित किया जा रहा है जिसमें उत्तराखंड राज्य के सामाजिक या सांस्कृतिक सरोकारों में जिन लोगों का योगदान रहा, उनको सम्मानित करने का प्रयास किया जाता है। 2024 में गढ़रत्न लोकगायक नरेंद्र सिंह नेगी को सम्मानित किया गया था।
कार्यक्रम की अध्यक्षता शिक्षाविद सचिदानंद जोशी ने की और संचालन गिरीश बडोनी ने किया। बडोनी परिवार के श्रेष्ठ सुशीला देवी; श्री इंद्रमणि बडोनी चैरिटेबल फाउंडेशन के विनोद बडोनी, राजेंद्र शाह, और शंकर गोपाल; शीशराम कंसवाल, बालकृष्ण नौटियाल, सचिदानंद बडोनी, वीर विक्रम, अमर सिंह, राकेश डंगवाल, मुकेश उनियाल, शैलेन्द्र भट्ट, आलोक डंगवाल इत्यादि भी मौजूद रहे।
चिपको आंदोलन का योद्धा
1977 से 1980 तक विजय जड़धारी ने आदवाणी, बडियारगढ़, लासी, ढुंगमंदार और खुरेत जैसे जंगलों में चल रहे चिपको आंदोलन में सक्रिय भूमिका निभाई। बडियारगढ़ के जंगल में जब वह और कुंवर प्रसून अकेले पेड़ों को बचाने में जुटे थे, तब उन्हें वन माफियाओं ने न केवल धमकाया, बल्कि पेड़ों पर बाँध दिया। भूखे-प्यासे रहकर भी वह अपनी प्रतिबद्धता पर डटे रहे। सबसे भयावह घटना 10 जनवरी 1979 को हुई, जब जड़धारी जी एक पेड़ से चिपके थे। वन निगम के अधिकारी ने मजदूरों के साथ मिलकर उन्हें आतंकित करने की नीयत से आरा चलाया और जड़धारी की टांग तक को चीरने का प्रयास किया। पजामा फट गया, घुटनों तक आरे के दांत चुभे और वह भीषण पीड़ा से तड़प उठे—मगर पेड़ को कटने नहीं दिया। 9 फरवरी 1978 को उन्हें 23 साथियों के साथ गिरफ्तार कर 14 दिन की जेल भी काटनी पड़ी। यह संघर्ष सिर्फ जंगल बचाने का नहीं, बल्कि हिमालय की आत्मा को बचाने का संकल्प था।
खनन माफिया के खिलाफ लड़ाई
चिपको आंदोलन के बाद जड़धारी का ध्यान उस बड़े खतरे पर गया, जिसने हिमालय की नाड़ियों को सुखाने की ठान रखी थी—चूना पत्थर खनन। उन्होंने हेवलघाटी, नागणी, खाड़ी-जाजल और पुट्टड़ी में मोर्चा खोला। नागणी में उन पर खनन माफियाओं ने हमला किया। नाहीकलां (दून घाटी) और कटाल्डी गांव की खान को बंद कराने में उनकी लड़ाई निर्णायक रही। कटाल्डी की खान तो पूरे दो दशक तक लड़ी गई जंग के बाद 2012 में बंद हो पाई—जिसका श्रेय जड़धारी के संघर्ष को जाता है।
बीज बचाओ आंदोलन: धरती को पुनर्जीवित करने का प्रयास
1980 के दशक में हरित क्रांति के दुष्प्रभाव सामने आने लगे। रासायनिक खाद, बाहरी संकर बीज और बाजार की निर्भरता ने किसानों को गुलाम बना दिया। जड़धारी ने इसी दौर में बीज बचाओ आंदोलन (BBA) की शुरुआत की। यह आंदोलन किसी संस्थागत ढांचे या फंड पर आधारित नहीं था, बल्कि किसानों की चेतना पर टिका एक जन-आंदोलन था। उन्होंने “बारहनाजा” पद्धति का पुनरुद्धार किया—एक पारंपरिक मिश्रित खेती प्रणाली, जिसमें एक खेत में 12 अनाज और दालें उगाई जाती हैं। यह पद्धति सिर्फ खेती नहीं, बल्कि भोजन की संप्रभुता और जैव विविधता का कवच है। आज उनके संग्रह में धान, झंगोरा, मंडुवा, गहत, भट्ट, तिलहन, मसाले और दालों की सैकड़ों किस्में हैं। सबसे बड़ी बात यह कि ये बीज बेचे नहीं जाते, बांटे जाते हैं—क्योंकि बीज का धर्म है अंकुरित होना, फैलना और सबको जीवन देना।
सम्मान और पहचान:
इंदिरा गांधी पर्यावरण पुरस्कार (2009) , किर्लोस्कर वसुंधरा सम्मान (2024), अब इंद्रमणी बडोनी स्मृति सम्मान (2025) ये सभी सम्मान न केवल विजय जड़धारी के व्यक्तिगत योगदान का प्रमाण हैं, बल्कि उन किसानों और कार्यकर्ताओं की सामूहिक जीत भी हैं जो पारंपरिक बीजों और पर्यावरण की रक्षा के लिए आज भी संघर्षरत हैं। देहरादून स्थित दून लाइब्रेरी में आयोजित समारोह में जब गढ़रत्न नरेंद्र सिंह नेगी, आचार्य सचिदानंद जोशी और पद्मश्री कल्याण सिंह रावत के करकमलों से विजय जड़धारी को सम्मानित किया गया, तो वह क्षण ऐतिहासिक बन गया।