विश्व जल दिवस 22 मार्च को मनाया जाता है। इसका उद्देश्य विश्व के सभी देशों में स्वच्छ एवं सुरक्षित जल की उपलब्धता सुनिश्चित करवाना है साथ ही जल संरक्षण के महत्व पर भी ध्यान केंद्रित करना है। ब्राजील में रियो डी जेनेरियो में वर्ष 1992 में आयोजित पर्यावरण तथा विकास का संयुक्त राष्ट्र सम्मेलन द्वारा आयोजित कार्यक्रम में विश्व जल दिवस मनाने की पहल की गई तथा वर्ष 1993 में संयुक्त राष्ट्र ने अपने सामान्य सभा के द्वारा निर्णय लेकर इस दिन को वार्षिक कार्यक्रम के रूप में मनाने का निर्णय लिया इस कार्यक्रम का उद्देश्य लोगों के बीच में जल संरक्षण का महत्व साफ पीने योग्य जल का महत्व आदि बताना था। 1993 में पहली बार विश्व जल दिवस मनाया गया था और संयुक्त राष्ट्र संघ ने 1992 में अपने ‘एजेंडा 21’में रियो डी जेनेरियो में इसका प्रस्ताव दिया था। संयुक्त राष्ट्र के अनुसार, लगभग 4 बिलियन लोग वर्ष में कम से कम एक महीने के लिए पानी की भारी कमी का अनुभव करते हैं और लगभग 1.6 बिलियन लोग – दुनिया की आबादी का लगभग एक चौथाई – एक स्वच्छ, सुरक्षित जल आपूर्ति तक पहुँचने में समस्याएं हैं।
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पटवारियों की अनिश्चितकालीन कलमबंद हड़ताल, सरकार पर अनदेखी का आरोप।
टिहरी। राजस्व निरीक्षक, राजस्व उपनिरीक्षक एवं राजस्व सेवक संघ से जुड़े कर्मचारियों ने विभिन्न तहसील मुख्यालयों पर कलमबन्द हड़ताल शुरू कर दी है। नई टिहरी तहसील में भी राजस्व निरीक्षकों और उपनरीक्षकों ने अपनी 4 सूत्रीय मांगों को लेकर धरना दिया। संघ से जुड़े कर्मचारियों का कहना है कि मांगों को लेकर पूर्व में कई बार सरकार से मांग की जा चुकी है, लेकिन उनकी मांग को अनदेखा किया जा रहा है। आन्दोलन कर रहे राजस्व निरीक्षकों का कहना है कि राजस्व परिषद द्वारा राजस्व नीरीक्षक और कानूनगो के पदों को एकीकृत कियंे जाने का प्रस्ताव शासन को भेजा जा रहा है, जिस पर उनकी आपत्ती है। कर्मचारियों ने कहा कि पटवारियों की समान काम, समान वेतनमान और समान संशाधन की मांग पर भी कोई कार्यवाही नही की जा रही है। संघ ने मांग की है कि उनके उच्चीकृत वेतनमान को लेकर राजस्व परिषद ने शासन को प्रस्ताव भेजा था, इस पर भी कोई कार्यवाही नही की जा रही है। राजस्व निरीक्षकों और उपनिरीक्षकों ने कहा कि जब तक उनकी मांगों पर कार्यवाही नही हो जाती तब तक उनकी यह अनिश्चितकालीन कलमबन्द हड़ताल जारी रहेगी।
उत्तराखंड आंदोलन: उत्तराखंड क्रांति दल का जन्म- विक्रम बिष्ट
अगस्त 1986 में उक्रांद के उपाध्यक्ष और कीर्तिनगर के ब्लाक प्रमुख दिवाकर भट्ट जी.ने पुराना दरबार टिहरी स्थित हमारे घर आकर मुझे दल की.सदस्यता. दी थीं ज्येष्ठ भ्राताश्री अब्बल सिंह बिष्ट जी की सहमति से। दोनोँ पुराने सहयोगी. रहे हैं।
ग्यारहगांव, हिन्दाव से फरवरी 86 में शुरू. वनांदोवन के दौरान भट्ट जी से मैरी जान-पहचान हुई थी।
आंदोलन की शुरुआत मंत्री प्रसाद नैथानी के साथ शुरू की गई थी। उतराखंड आंदोलन के लिए वह मील का पत्थर साबित हुआ। इन्द्र मणि बडोनी. जी की.सक्रिय राजनीति में वापसी उसी आंदोलन से हुई थी। बिस्तार से आगे,,।
दाताराम चमोली, पुरुषोत्तम बिष्ट शुरुआती साथी रहे हैं। फिर परेन्द्र सकलानी जुड़े। 10 नवंबर 86 को उक्रांद की नैनीताल रैली में हम साथ थे।
मार्च 87 की पौड़ी रैली, 9 अगस्त के ऐतिहासिक उत्तराखंड बंद और चक्काजाम और 23 नवंबर की दिल्ली रैली तक विक्रम नेगी(एडवोकेट), सुरेन्द्र रावत, मदन जोशी, अनिल अग्रवाल, लोकेंद्र जोशी सहित कई छात्र उक्रांद और राज्य आंदोलन में सक्रिय हो गये थे।
उत्तराखंड आंदोलन: रैलियों का हश्र दिल्ली से पौड़ी तक।- विक्रम बिष्ट।
आपातकाल के बाद देश में 1977 में पहली बार गैर कांग्रेसी सरकार बनी-.जनता पार्टी की। दो बार कांग्रेस विधायक रहे त्रेपन सिंह नेगी जनता पार्टी के टिकट पर लोकसभा सदस्य चुने गए।
उत्तराखंड राज्य परिषद का पुनर्गठन कर सत्तारूढ़ पार्टी के सांसद नेगी जी को इसका अध्यक्ष बनाया गया।
उनकी अध्यक्षता में दिल्ली वोट क्लब पर उत्तराखंड रैली आयोजित की गई। नेताओं के बीच खुद को बड़ा और असली नेता साबित करने के लिए मंच पर छोटा सा घमासान हुआ। बताते हैं कि किसी ने अध्यक्ष जी की कुर्सी ही लुढ़का दी थी।
उसके बाद प्रधानमंत्री मोरारजी देसाई को ज्ञापन दिया गया। प्रधानमंत्री जी ने टका सा जवाब दे दिया।
एक सितंबर1994 को छात्र संघर्ष समिति द्वारा पौड़ी में आहूत रैली भी निजी राजनीतिक महत्वाकांक्षाओं की भेंट चढ़ी। उस दिन एक तरफ खटीमा में निहत्थे आंदोलनकारियों पर सरकारी गोलियां बरसाई जा रही थीं।इधर पौड़ी में छात्रों के साथ हजारों जागरूक लोग रैली में शामिल थे। मंच पर प्रफुल्ल महंत बनने की महत्वाकांक्षाओं की हास्यास्पद खींचतान के मूक दर्शक!
उत्तराखण्ड आंदोलन -उतराखंड बनाम उत्तरांचल : विक्रम बिष्ट
भाजपा का दावा है कि उत्तराखंड राज्य उसकी देन है। कभी भाजपा उत्तराखंड राज्य की मांग को अलगाववादी बताती थी।
मन परिवर्तन हुआ तो उत्तरांचल नामधारण कर पृथक पर्वतीय राज्य समर्थक हो गई।
उत्तराखंड नाम में अलगाववाद की बास आ रही थी, इसलिए उत्तर अंचल या ,,
बहरहाल, भाजपा के जन्म के लगभग आठ साल पहले पृथक पर्वतीय राज्य निर्माण के लिए नैनीताल में उत्तरांचल परिषद का गठन किया गया था।
दिलचस्प तथ्य यह है कि उत्तरांचल परिषद को व्यापक आधार देने में कांग्रेस विधायक इन्द्रमणि बडोनी की महत्वपूर्ण भूमिका थीं। बडोनी जी उत्तराखण्ड राज्य परिषद के प्रमुख नेता थे।
टिहरी के विधायक गोविन्द सिंह नेगी सहित विद्यासागर नौटियाल, कमलाराम नौटियाल जैसे जुझारू कामरेड। यानी कि राजनीतिक विचारधाराओं से ऊपर उठकर उत्तराखंड राज्य निर्माण का पवित्र लक्ष्य।
राजनीतिक तोड़फोड़ का अपना व्याकरण है। वरना उत्तराखंड यानी उत्तर अखंड और उत्तरांचल = उत्तर अंचल
उत्तराखंड में जनसंघ और भाजपा के बड़े स्तंभ शोभन सिंह जीना, देवेन्द्र शास्त्री जी को उत्तराखंड नाम से परहेज़ नहीं था। मनोहरकांत ध्यानी जी को भी नहीं। मुझे याद है कि उक्रांद की एक बैठक में रामनगर जाने के लिए उन्होने ऋषिकेश से हमें गाड़ी दी थी। कहने का तात्पर्य यह है कि उत्तराखंड राज्य निर्माण के संघर्ष में असंख्य नामीगिरामी और इनसे हजारों गुना गुमनाम लोगों का योगदान है।
इतिहास को अपने हिसाब से लिखने की सरकारी कोशिशें कागज पर ही ठीक लग सकती हैं, कागज की नाव भला कब तक?15 अगस्त 1996 को प्रधानमंत्री एचडीदेवगौड़ा
की उत्तराखंड राज्य बनाने की घोषणा के साथ इसके लिए संविधानिक प्रक्रिया शुरू हो गई थी। उत्तर प्रदेश पुनर्गठन विधेयक-1998 में
उत्तराखंड के साथ उत्तरांचल नाम नथी कर दिया गया। तब केन्द्र में भाजपा सरकार बन गई थी और उत्तर प्रदेश में भी। उत्तर प्रदेश सरकार ने उत्तराखंड नाम पर स्याही पोतकर पहाड़ का आंचल उतारने की सिफारिशों के साथ विधेयक केन्द्र को भेज दिया।
उत्तराखंड आंदोलन-तीन पर्वतीय राज्य परिषद, उत्तरांचल परिषद और उत्तराखंण्ड राज्य परिषद- विक्रम बिष्ट
पर्वतीय राज्य परिषद के गठन के बाद आंदोलन में तेजी आई। टिहरी, पौड़ी, अल्मोड़ा सांसद क्रमशः मानवेंद्र शाह, प्रताप सिंह नेगी, नरेंद्र सिंह बिष्ट, विधायक इन्द्रमणि बडोनी, चन्द्र सिंह रावत, लक्ष्मण सिंह अधिकारी,गोबिंद सिंह नेगी सहित उत्तराखंड के कई प्रमुख नेता, पत्रकार, अधिवक्ता, संस्कृतिकर्मी,
राजनीतिक और सामाजिक कार्यकर्ता परिषद के आंदोलन को गति देने के लिए सक्रिय रहे थे।
परिषद की एक खासियत यह थी कि वाम से लेकर धुर दक्षिणपंथी नेता इसमें सक्रिय रहे थे। कांग्रेस के विभाजन के बावजूद कांग्रेस ई और कांग्रेस संगठन के नेता एक मंच से पृथक पर्वतीय राज्य की मांग बुलंद कर रहे थे।
दिल्ली में भी निगम पार्षद कुलानंद भारती सहित कई लोग राज्य निर्माण आंदोलन को व्यापक बनाने की कोशिशों में जुटे थे। जारी,,,,
उत्तराखंड आंदोलन: विक्रम बिष्ट
सन् १९४६ में कुमाऊं केसरी बद्रीदत्त पाण्डे की अध्यक्षता में आयोजित हल्द्वानी सम्मेलन में पहाड़ी क्षेत्र के लिए पृथक प्रशासनिक इकाई के गठन का प्रस्ताव पारित किया गया था।
भारतीय कम्यूनिस्ट पार्टी के पूर्व महासचिव पीसी जोशी ने इसे आगे बढ़ाया। १९५७ में टिहरी रियासत के अंतिम शासक मानवेंद्र शाह कांग्रेस के टिकट पर लोकसभा सदस्य निर्वाचित हुए। उन्होंने उत्तराखण्ड राज्य निर्माण के लिए मुहिम तेज की।
जून १९६७ की २४-२५ तारीखें उत्तराखण्ड आंदोलन के इतिहास में बहुत अहम है। दयाकृष्ण पाण्डे की अध्यक्षता में रामनगर में आयोजित सम्मेलन में पर्वतीय राज्य परिषद का गठन किया गया। रामनगर में अलग राज्य के लिए बड़ी रैली हुई। यह अलग राज्य निर्माण के लिए बौद्धिक कवायद से आगे जनता को आंदोलन से जोड़ने का पहला प्रयास था। परिषद के कार्यकर्ताओं ने उत्तराखण्ड के विभिन्न हिस्सों में जाकर जन जागरण अभियान चलाया।
पीढ़ियों का संघर्ष उत्तराखण्ड आंदोलन: विक्रम बिष्ट
भाजपा की गर्वोक्ति – अटल जी ने दिया है और मोदी जी संवारेंगे- को मान लें तो उत्तराखण्ड आंदोलन के इतिहास की बात करना बेमतलब है। लेकिन भाजपा के नेता राज्य आंदोलन के शहीदों को श्रद्धांजलि देने मसूरी, खटीमा और रामपुर तिराहे जाते हैं!
शहीदों के सपनों को साकार करने का संकल्प लेते हैं। सच क्या है!
उत्तराखंड राज्य निर्माण के विरोधी और इसकी पहली निर्वाचित सरकार के मुख्यमंत्री नारायण दत्त तिवारी जी ने राज्य आंदोलनकारियों के चिन्हीकरण करने का फैसला लिया था। मकसद क्या था? सिर्फ १९९४ का आंदोलन, और उसको महज कुछ लोगों का आंदोलन साबित करके इतिहास को बदरंग करना। अपने लोगों को येन केन प्रकारेण लाभान्वित करना।
बहरहाल हमारी जानकारी में उत्तराखंड राज्य पीढ़ियों के अनथक संघर्ष की देन है। अनगिनत लोगों ने अपने-अपने स्तर पर त्याग, तपस्या की है।
सरकार ने उत्तराखण्ड आंदोलनकारियों के चिन्हीकरण की स्थगित प्रक्रिया को पुनः शुरू किया है। परिणाम जल्दी सामने आयेंगे।
१९९४ में कौन राज्य आंदोलनकारी नहीं था इसकी पहचान ज्यादा आसान होती। बहरहाल हम आंदोलन की सरसरी जानकारी याद करने की कोशिशें करते हैं।
भौंकुछ। विक्रम बिष्ट – देवभूमि में फिर पुण्य का पिटारा,,,,,बांटे रेवड़ी,,,!
देवभूमि में फिर पुण्य का पिटारा,,,,,बांटे रेवड़ी,,,!
उत्तराखंड सरकार ने पुण्य फल का पिटारा फिर खोल दिया है। साल के आखिरी दिन तक पुण्य फल बांटे जाएंगे।जी मतलब, उत्तराखंण्ड आंदोलनकारियों को! या,,,को ?
उत्तराखंड के सच्चे आंदोलनकारियों की पहचान तो होनी ही चाहिए। वरना हमारे जैसे लोगों को अभी भी भ्रम है कि हम भी कभी आंदोलनकारी थे। इस बार यह भ्रम पूरी तरह समाप्त कर दिया जाना चाहिए! सरकार, उसके समदर्शी+ सहश्रचक्षु+ न्याय के प्रति समर्पित तंत्र से पूरी उम्मीद है। भाजपा+ कांग्रेस+ फिसल पड़े तो हर-हर गंगे ख्याति प्राप्त राज्य आंदोलनकारियों के सहयोग से।
इस ढूंढने- ढांढ़ने के पुण्य कर्म की शुरुआत तिवारी जी ने की थी। वह उत्तराखण्ड राज्य के सबसे बड़े पैरोकार थे, क्या धांसू डायलाग मारा था- उत्तराखंण्ड राज्य मेरी लाश पर बनेगा! बन ही गया तो चलो चुपचाप मैं ही मुख्यमंत्री बन जाता हूं। आंध्र प्रदेश बाद में देख लूंगा। दिल्ली में अपनी कांग्रेस का राज़ होगा जब। दरिया दिल नेता थे इसलिए चिन्हीकरण के लिए ऐसे मानक तय किए गए जिसके तहत नकली,,,
मेरा मतलब असली आंदोलनकारी तुरंत चिन्हित हो सकें। कांग्रेस, भाजपा बराबर, कुछ चंट- चालाक। और जिनको सरकारी रिकॉर्ड खंगाल कर इस पुण्य कर्म में बड़ी जिम्मेदारी निभानी है उनका भी तो कुछ बनता है।
सरकार ने एक महान खोज यह भी की थी कि इन्द्र मणि बडोनी उत्तराखंण्ड राज्य आंदोलनकारी थे। कोई शक न रहे इसलिए पौड़ी प्रशासन ने ही बडोनी जी को प्रमाण पत्र जारी किया। अब यह प्रमाण पत्र बडोनी जी को मिला या नहीं यह तो सरकार आप ही पता लगा सकते हैं।
अभी यह सूचना मिली है कि भारत में आखिरी ब्रिटिश
वायसराय ने महारानी विक्टोरिया से पुन: इंडिया के यूके जाने की अनुमति मांगी है ताकि वह यहां आकर महारानी की ओर से चिन्हित लोगों को ताम्र पत्र बांट सकें ताकि सनद रहे।